Friday 6 April 2012

सेना और उसकी साख़


"यार सोनू..! फ़ौज में कुछ मिले न मिले (सैलरी बहुत कम होती है ) लेकिन एक बात ज़रूर है की बाहरी दुनिया में इज्ज़त बहुत मिलती है "
ये कथन है मेरे एक मित्र की लेकिन जिस तरह से हाल के दिनों में सेना प्रमुख और उसकी साख़ पर सवालियां निशान लग रहे हैं उससे ऐसा लग  है की वो एक मात्र रुतबा भी उससे छिनता जा रहा है.
ये कहानी केवल एक फौजी की नहीं , बल्कि अपने घर से मीलों दूर हजारों लाखों सैनिको की है जो आज अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे हैं.
जनवरी की रात सेना की दो टुकड़ी दिल्ली की ओर कूच कर रही थी ,बकौल कुछ लोग और मीडिया के मुताबिक ये दिल्ली में कोई अप्रिय घटना को अंजाम देने के लिए था.!
हलाकि , रक्षा मंत्रालय, रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री के बाद खुद सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह ने इस  खबर को बकवास करार दे दिया है. लेकिन फिर भी जिस तरह से रोज़ इस ख़बर को एक नया तूल देकर  सामने लाया जा रहा है,उससे ऐसा  लग रहा है जैसे किसी ग़ैर सरकारी संस्था ने ज़िम्मा ले लिया हो सेना और उसकी छवि को धूमिल करने का.
लोगों को समझना चाहिए की हमारे यहाँ का निजाम कोई पकिस्तान जैसा नहीं है की तीनो सेना की कमान एक के हाथ में है,और जब चाहे तख्तापलट कर दे. भारतीय सेना दुनिया में चौथी वरीयता प्राप्त एक सशक्त  और सक्षम सेना है जिसकी बागडोर थल,जल और वायु सेना रुपी ३ चमचमती  तलवार में विभाजित है जो कभी भी अपने दुश्मनों का सिर धड से अलग करने में दम रखती है.
मैं मानता हूँ की संचार के अभाव में  इस प्रकार की गड़बड़ी सामने आई है लेकिन इसका ये मतलब कतई भी नहीं होना चाहिए की हम आँख बंद कर सेना और उसकी साख़ की तरफ़ ऊँगली उठा दें।
गड़बड़ी सामने आई है तो पहले उसकी पूर्ण रूप से जांच होनी चाहिए,नाकि इस तरह से इलज़ाम गढ़ देना चाहिए।
कुछ भावुक लोगों को शायद ये बात बुरी लगे लेकिन सेना की मर्यादा किसी सांसद से कम नहीं है (मुझे माफ़ करें,मैंने सांसद का अपमान किया)उनके अपमान में तो होहल्ला मच जाता है,.लेकिन यहां सेना के पक्ष के बोलने वालों में सिर्फ सुगबुगाहट ही नज़र आ रही है.
ये वक्त है हमें अपनी सोच और नीयति में बदलाव लाने की,  क्योंकिसेना जैसी मर्यादित संस्था पर कीचड़ उछाल कर हम  खुद अपना मुह गोरा कर नहीं गूम सकते हैं,और जिन्होंने  भी सेना की साख़ और उसकी गरिमा को आहात करने की  कोशिश की है उसके खिलाफ सख्त से सख्त कदम उठाया जाना चाहिए.
-धन्यवाद्

Thursday 8 December 2011

मेरी ज़िंदगी का मकसद तेरे दीन की सरफ़राज़ी,मै इसलिए मुसलमां...मैं इसलिए नमाज़ी

"जो की मुहम्मद से वफ़ा तूने...
ये जहां चीज़ क्या है,लौह-ए-कलम तेरे..


मुहर्रम .... इस्लामिक कैलेंडर हिजरी का वो मुक्कदश महीना जिसे माह ­-ए-शहादत का दर्जा मिला ......मुहर्रम गम और मातम का वो पाक महीना .....जिसने आज से 14 सौ साल पहले शहादत की वो मिसाल कायम की जिसे आदम जात के लिए आज तक भूलाना मुमकिन नही ...।
मुहर्रम .... मजहब -ए- इस्लाम का वो महीना है जिसने गुजरे तारिख मे कर्बला के मैदान को कब्रिस्तान बना दिया ।

(बकौल कर्बला की किताब के मुताबिक आज से 1400 साल पहले उस वक्त के तानाशाह यजीद का जुल्म गरीब और मजलुमों पर अपने परवान पर था ।
यजीद ने जुल्म और दहशत का वो माहौल बना रखा था जिसके तस्ववुर भर से रूह कापं जाए।
सन 60 हिजरी का वो साल सितम भरा था जब यजीद मजहब-ए-इस्लाम का खलीफा बन गया ।
 यजीद ने हज़रत मुहमद साहब के नवासे हज़रत हुसैन को अपने कबीले में शामिल होने का  हुक्म दिया कि वो उसके जालीम कबीले मे शामिल हो जाए ।
हज़रत इमाम हुसैन को यजीद का ये नापाक फरमान नागवर गुजरा।

हजरत इमाम हुसैन रज़ि. को उनकी वालिदा बीबी फातिमा से नेकी और सच्चाई की राह पर चलने की तालीम मिली थी। सिर्फ अपने फायदे के लिए किसी जालिम की गुलामी उन्हें कैसे गवारा होती।इसीलिए उन्होने उस सूबे को ही छोड़ देना ज्यादा बेहतर समझा और अपने खानदान के 123 लोगो के साथ मदिना से कुफा को तरफ रवाना हो गये ।


लेकिन उपर वाले को कुछ और ही मंजूर था। अल्लाह ताला अपने बंदो से जिंदगी के हर मोड़ पर इम्तेहान लेता है और इसी इम्तेहान से हज़रत इमाम हुसैन को गुजरने का घड़ी आ चुकी थी । जब यजीद के 41000 सिपाहिओं के सामने हज़रत इमाम हुसैन के सिर्फ 71 लोग सामना करने वाले थे और सबके जुबां पर एक ही बात थी कि कातिल से डरने वाले ए आसमां नही हम...सौ बार ले चुका है..तू इम्तेहां हमारा..

अल्लाह की मर्जी के आगे किसी की नही चलती शायद इसलिए मुहरर्म महिने की दसवी तारीख को हज़रत हुसैन के साथ 72  लोगो को शहादत का पाक दर्जा मिल गया जिसका गवाह बना कर्बला का ऐतिहासिक मैदान 


मुहर्रम  का मतलब खुद को सच्चाई और नेकी के रास्ते पर कुर्बान करना। जिस तरह हज़रत ईमाम अपने उसुल और ईमान को पक्का रखा और उसपर कायम रहते हुए किसी के आगे सर नही झुकाया इसी तरह हर इंसान को हमेशा सच्चाई की राह पर चलना चाहिए ।....

माह-ए- मुहरर्म हकिकत में ग़म का महिना है , इस महिने के शुरू के 10 दिनों में इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए रोज़ा रखा जाता है , इस महिने का एक रोज़ा 30 रोज़ो के बराबर की अहमियत रखता है । गरीबो को खाना खिलाना , शरबत पिलाना , कुरान की किरत करना इस महीने में अज़मत माना जाता है । कहीं ताजिए को जियारत होती है तो कहीं मातम का माहौल , कही ढ़ोल और ताशे बजते हैं तो कही नमाज़ और रोज़े की रवायत ।

तरिका बेशक अलग हो लेकिन हर इंसान के ज़ेहन में शहादत का जूनू साफ देखा जा सकता है ।

माहे-मुहरम ग़म और शहादत के महिना होता है इसलिए इसकी अकिदत में महज़ब-ए-ईस्लाम को मानने वाले अपने  घरो में शहनाई नहीं बजाते ।
 तरीका अलग हो ........ तहजीब अलग हो .........शहादत के बयां का तर्जुमा अलग हो ....... लेकिन हज़रत इमाम ने सच्चाई और नेकी पर चलने की ऐसी मिसाल कायम की थी जिसे कयामत तक इस कायनात को भुलाना.. आसां नहीं.................
 किसी बड़े शाय़र ने शायद सही ही कहा था जो हजरत इमाम हुसैन की शहादत को बयां कर रही है कि..
तौहीद की अमानत सीने में है हमारे...
आता नहीं मिटाना.. नामों निशां तुम्हारा..।


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Tuesday 26 July 2011

वस्तान्वी साहेब का बाहर जाना-कितना सही कितना ग़लत?


मनुष्य एक संवेदनशील प्राणी है,उसके सोचने की शक्ति और उसके भावना व्यक्त का अंदाज़,एक दुसरे के सुख दुःख में सह्तोग आदि उसे अन्य जीव से भिन्न करता है.
इसके जीवन में आये दिन कुछ न कुछ घटता ही रहता है,कुछ सुखद आनंद देता है तो कुछ बातें और यादें एक घाव की तरह उसके ज़ेहन में दाग़ छोड़ जाती है.
कुछ ऐसा ही घाव ब्रिटिश शासको ने जलियांवाला बाग़ काण्ड में दिया था,तो कुछ बटवारे के वक़्त तो कुछ सिख दंगो ने तो कुछ २००२ के गुजरात दंगे ने.
ये कुछ ऐसे दर्द है जिसे हम चाह कर भी नहीं भुला पाते.

इन दिनों दारूल-उलूम के कुलपति ग़ुलाम मोहम्मद वस्तान्वी को उनके पद से हटा देना काफी चर्चा का विषय बना हुआ है.
मुस्लिम समुदाय द्वारा उच्च अधिकार प्राप्त समिति मज्लिश-इ-शूरा के इस फैसले का कुछ लोग निंदा कर रहे है तो कुछ सराहते थक नहीं रहे.
ये भारतवर्ष है,यहाँ हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का पूरा हक़ है,और कहना भी चाहिए.मै इसका स्वागत करता हूँ.
मगर अक्सर सुनते आया हूँ की जब आप किसी बड़े ओहदे पर होते हैं तो आपके साथ कई जिम्मेदारियां भी  होती है.
आपका हर कथन सुलझा,और एक कुंबे को प्रदर्शित करने वाला होना चाहिये.
शायद ये कुछ बातें वस्तान्वी साहेब मोदी की तारीफ़ करते वक़्त भूल गए की वो किस पद पर आसीन है और इसका क्या असर हो सकता है.
निश्चित तौर पर हमें पिछली बातों को भूलकर आगे का सोचना चाहिये,और कुछ अलग करना चाहिए.
ये सारे कथन सुनने में बड़ा आदर्श वादी लगता है,और कोई भी इसे सुनकर कहने वाले का पीठ थप्थपाएगा  ही .
मगर कहने और सहने में फर्क होता है,जिस पर बीती है उससे जाकर कोई पूछे इस दर्द का एहसास.
वैसे वक़्त हर ग़म को भूला देता है,और गुजरात दंगे के पीड़ित इसे भूल भी रहे थे.
लेकिन ऐसे स्थिति में वस्तान्वी साहेब के मुह से इस नरसंहार के मुखौटे की तारीफ़,उस दंगे के पीड़ित के ज़ख्म पर नमक छिड़कने से कम नहीं है.
कैसे कोई बेटा अपने आँखों के सामने माँ-बाप के टुकड़े करने वाले को भूल जाए,?
कैसे कोई मूक दर्शक बनी उस पुलिस को भूल जाए जो वहां तमाशा देख रही थी.?
कैसे किओ भूल जाए बाबू बजरंगी की वो अमानवीय हरकत जब उसने एक नवजात शिशु को अपनी तलवार में घोप कर यह कहा की मुझे अपने आप में महाराणा प्रताप की अनुभूति प्राप्त हो रही है.
इंसानियत को शर्म सार कर देने वाले इस वाकिये के बावजूद जस्टिस मेहता ने उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया.
पता नहीं और कितने ऐसे बाबू आराम से अपना जीवन बिता रहे है.
पर उन दुखड़ों का आज क्या?जिन्होंने ये नज़ारा देखा है और सह रहे हैं.
नतीजा आज किसी से छुपा नहीं है.खुद एस.आई.टी. ने भी मुख्यमंत्री महोदय को क्लीन चीट दे दिया.
बहरहाल 
 ग़लती सभी से होती है,शायद इस लिए क्षमा या पश्चाताप नाम भी कोई चीज़ होती है.
मगर कोई मुझे एक इकलौता उदहारण देगा जब मोदी ने स्वयं गुजरात दंगे पर माफ़ी मांगी हो.
नहीं!
क्योंकि वो आज भी अडिग हैंकि उन्होंने जो किया सही किया.

हम जनरल डायर की तारीफ़ यह कहकर नहीं कर सकते की वो बहुत अछे इंसान थे,उन्होंने जलियांवाला काण्ड में हजारो लोगों को मारा जिससे हमें प्रेरणा मिली की हमें आज़ादी मिलनी चाहिए.
ये तो शहीदों के खून को नालें में बहाने के समान है.
आज भी वहाँ की दीवारों पर गोलियों के निशाँ देख कर रूह सिहर उठता है.
क्या उसे हम भूल सकते हैं.?
कुछ ऐसा ही वाकिया  मोदी जी के साथ हुआ.
जिनकी धरती पर जब सबकुछ मिट गया,और आज किसी ने आशियाना बना लिया तो उसे विकास का नाम दे दिया.
आज गुजरात २८ राज्यों में नंबर १ के खिताब के साथ ८-१० % की विकास दर के साथ आगे बढ़ रहा है.
इससे वहां की जनता (हिन्दू,मुस्लिम,सिख ,इसाई ) का विकास हुआ है,नाकि सिर्फ मुसलमान का.
मुस्लिम की हालत में सुधार किसे कहते हैं.?
गुजरात में मुस्लिमो के हक के लिये ना तो एक मानिओरिटी कमीशन है,ना तो एक हज कमिटी है.
ना ही मुस्लिम संस्थाओं द्वारा राष्ट्रीय अस्तर पर मान्य डिग्री से किसी  अच्छे पोस्ट पर दाखिला हो पाता है.
क्या इसे ही उध्हार कहते हैं. या पूर्ण विकास?
विकास का समर्थक मै भी हूँ.
और कही भी विकास की बात होती है तो दिल खुश होता है.
परन्तु जो व्यक्ति ग़लत है,और उसकी तारीफ़ हो तो ऐसी मानसिकता वाले लोंगों को और शह मिलती है.
और इसे रोकना कोई गुनाह नहीं.
वैसे भी भाषण बाज़ी और किसी का दर्द दिल से महसूस करने में फर्क होता है,ये मेरी सोंच है.
चाहे वो किसी भी धर्म का हो.
क्योंकि  दिल से निकली आह किसी का भी घर जला सकती है.

(सभी अपने अपने विचार व्यक्त करे,मै उसका स्वागत करता हूँ,)

Friday 24 June 2011

ज़रा ग़ौर करने वाली बात!!

बचपन से सुनता  आया हूँ की  इश्वर प्रेम का और श्रधा का भूका होता है हीरे और जवाहारात का नहीं.,मगर पिछले दिनों जब दो महीने बाद भगवान् सत्य साईं की मृत्यु के बाद जब उनका विशेष कक्ष खोला गया तो हमेशा से सुनते  उस कथन पर संदेह होने लगा.
कयास तो यही लगाया जा रहा था के कुछ न कुछ चौकाने वाला दृश्य होगा ही,और ठीक उसी तरह आशा के अनुरूप खबर वैसी हे दिखी. ३८ करोड़ की संपत्ति ,हीरे जवाहारात,विदेशी मुद्रा आदि का भंडार उस बायोमैट्रिक कक्ष में मौजूद था. 
अब इसे भगवान् की श्रधा कहे या उनका पूँजी प्रेम ये समझ से बाहर है.
उनके इस कक्ष को उनके उँगलियों के निशाँ से हे खोला जा सकता था,और उनके करीबी सत्यजीत को छोड़कर और किसी को जाने की इजाज़त नहीं थी.
खैर जो भी हो,सच तो यही है की बाबा के जीवन में विवादों के साथ साथ उनका चमत्कारी तेज भी बढ़ता रहा.
शायद इसलिए उनकी मृत्य की खबर से पुरे विश्व में शोक की लहर दौड़ गयी और  आज भी उनकी तस्वीर को रखकर उनके भक्त  पूजा अर्चना  करते हैं.

बहरहाल मै बाबा की विश्वश्नियता पर कोई सवाल नहीं उठाना  चाहता !
मुझे इस समय कार्ल मार्क्स की पढ़ी हुई एक बात याद आ रही है की "धर्म एक अफीम की तरह होता है जो थोड़ी देर के लिए राहत देती है."
आज हर व्यक्ति अपने आप में परेशान  या यूं कहिये शान्ति की चाह में अँधा हो चूका है.
और इसका फ़ायदा नित्य प्रतिदिन उपज रहे बाबा और ट्रस्ट उठा रहे हैं.
श्रधा की आड़ में भ्रस्ट राजनेता और उद्योगपति इन ट्रस्टों में अपना पैसा जमा कर देते हैं .जहा उनका धन महफूज़ रहता है.
इससे, जहाँ एक ओर टैक्स की चोरी खुले आम घर में हे होती है,तो दूसरी तरफ इस धन के जायज़ नाजायज़ होने की राजनीती में मार काट,भड़काऊ भाषण,अपराध ,खून खराबा अलग.
आम जनता की आँखों  पर इस तरह से धर्म का पर्दा डाल दिया जाता है की वो क्या सही क्या ग़लत इस पर विचार हे नहीं कर सकती है.
कारणवश
आज धर्म ,धर्म ना रहकर पैसे छिपाने का बैंक और राजनीति की कारखाना होता जा रहा है.
दुर्भाग्यपूर्ण ये है की इस सुनियोजित बहस में पड़कर देश और जनता का समय तो बर्बाद होता हे है साथ साथ मुख्य कार्य पीछे छूट जाते हैं.
पहले के मुकाबले आज जनता का विवेक कही जागा है,बस ज़रुरत है तो उसे निखारने की .
बेहतर यही होगा की किसी भी चीज़ खासकर धर्म में अँधा लीन नहीं होना चाहिए,और क्या सही क्या ग़लत का फर्क देखने का ज़ेहन रखना होगा .
इससे अपना भी भला होगा और शायद देश का भी कुछ भला हो जाय!!!!

Saturday 18 June 2011

कानून व्यवस्था और चुनौती


विधि व्यवस्था अर्थात क़ानून व्यवस्था .सुनने में ज़रा आधुनिक शब्द लेकिन अपने आप में इतना महत्वपूर्ण जिससे स्वयं श्रृष्टि का निर्माता विधाता भी अछूता नहीं .
किसी राष्ट्र की सम्पन्नता वहां के विधि व्यवस्था  से झलकती है.यह एक ऐसा माध्यम  है जो किसी राष्ट्र को विकास रुपी शिखर पर पहुंचाता है वहीँ अगर इसका दुरुपयोग हो तो उस राष्ट्र को भ्रस्ताचार की खाई में भी धकेल देता है.
बात की जा रही है अपने देश भारत की जहाँ  आज से ६१ वर्ष पूर्व हमारे कानून के निर्माताओं ने इसे पूर्ण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और हमारे समक्ष एक ऐसा संविधान पेश किया जो अपने आप में परिपक्व था ..
कार्यपालिका,न्यापालिका,और विधायिका ये  हमारे संविधान के वो अस्तंभ है जिसपर हमारा राष्ट्र टिका हुआ है.
लेकिन ऐसे में सवाल यह आ गया की इस सुनियोजित व्यवस्था में भ्रष्टाचार रुपी दीमक क्यों लग गया जिससे इन अस्ताम्भों की नीव कमज़ोर पड़ने लगी?
किसी महान व्यक्ति ने कहा था की अनुशाशन ही देश को महान बनाता है.कथन सत्य है 
लेकिन इसे माने कौन?
ग़लतियों की शुरुवात तो हम आम आदमी के मामूली से लोभ से होती है जब किसी के बहकावे में आकर हम किरिमनल ,अनपढ़ गवार को अपना प्रतिनिधित्व बनाकर संसद एवं विधानसभा में भेज देते हैं.यहाँ से ही भ्रष्टाचार की बीज पनपती है और हमारे समक्ष क़ानून व्यवस्था में चुनौती रुपी कटु शब्द आ जाता है ,जिस पर अंकुश लगाने के लिए हमें और हमारी सरकार को कुछ करना ही है.
स्वतंत्रता के बाद से अब तक हमारे संविधान में कुल ९४ संशोधन हो चुके हैं.जिसमे ज़मींदारी प्रथा को हटाने ,शिक्षा का अधिकार,सूचना का अधिकार जैसे महत्वपूर्ण तथ्य शामिल है,लेकिन इन सब के इलावा भी हमारे क़ानून के हाथ बंधे पड़े हैं.
हमारी लाचारी तो इसी बात से झलकती है की हम भ्रष्टाचार में शामिल होने पर राष्ट्रपति एवं मुख्य न्यायधीश के खिलाफ महाभियोग तो चला सकते हैं ,परन्तु एक सांसद के दोषी होने पर उसे बाहर का रास्ता दिखाने के लिए आग्रह करते हैं.ये तो ऐसा लगता है जैसे किसी को आसमान पर बिठा दिया ,और फिर वहीँ से ज़मीन पर पटक दिया.
ये एक छोटा सा उदाहरण है जो कही न कही हमें असहाय होने का ज्ञान देती  है.
आज पूरा देश राष्ट्रमंडल खेल घोटाला,आदर्श सोसाइटी घोटाला कर्नाटक भूमि अधिग्रहण विदेशों में काला धन जैसे मामलों से घिरा पड़ा है.जिसमे सभी वर्ग के मंत्रियों से लेकर सैन्य नौकरशाह  तक शामिल हैं,जिसने विश्व अस्तर पर हमारे कानून व्यवस्था पर सवालिया निशाँ लगा दिया है.
वैसे सुनने में बड़ा अच्छा लगता है की हमारा देश एक लोकतान्त्रिक देश है,जो जनता के लिए जनता के द्वारा है.
मगर
ये कहते  हुए भी दुःख होता है की जब आम जनता का ही भरोसा सत्ता से उठ जाए तो उस देश का भविष्य धुंधला दिखे ये कहना ग़लत नहीं होगा.
ये हमारी विडम्बना हे है की आज अगर कोई भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठा रहा है तो शक की सुई उसी की तरफ मोड़ी जा रही है.
क्या अगर कोई व्यक्ति कितना भी बुरा हो मगर उसकी मांग जायज़ हो तो क्या उसे बुरा कहने से उसकी मांग ग़लत हो जायेगी.
ज्यादा बताने की ज़रुरत नहीं है,क्योंकि क्योंकि सच तो यही है की हमेशा सच का दामन साफ़ ही होता है.
बस ज़रुरत है तो धैर्य की और जनता को जागरूक होने की वो किस तरफ अपने और अपने  देश के भविष्य के लिए जाय.

अतः इन सभी पहलुओं पर हमें सोचने के साथ साथ इन चुनौतियों को स्वीकार करना होगा,वरण कुशाषण रुपी चिंता हमारे माथे पर ऐसा घाव देगी जिसे वक़्त चा कर भी नहीं मिटा पायेगा.....!!!

Saturday 21 May 2011

आंतक पर कारवायी या देश को तमाचा?


हम भारतीय भी कितने मासूम और बेबस हैं.
एक तरफ हम अपने देश से ये उम्मीद लगाये बैठे हैं की वो अमेरिका की तर्ज़ पर अपने दुश्मनों से बदला लेगा,और दूसरी तरफ गृह मंत्रालय नपुंसक की तरह अपनी हे पीठ थपथपाने के लिये पकिस्तान सरकार को आतंकियों की सूँची थमा रही है.
वो काली सूँची भी ऐसी जिसने अपने ही देश का मुहं काला करवा दिया.
आश्चर्य होता है की देश की दो प्रमुख एजेंसी सी.बी.आई और ख़ुफ़िया विभाग ने ऐसी ग़लती कैसे कर दी! वजहुल कमर और फ़िरोज़ खान का नाम उस सूँची में शामिल होना कोई छोटी-मोटी ग़लती नहीं है जिसे कुछ निचले कर्मचारियों के निष्काषित किये जाने पर माफ़ कर दिया जाय.
हम पकिस्तान से क्या उम्मीद लगाये बैठे है की वो वाघा बोर्डर पर उन आतंकियों को लेकर आएगा और हमें सौंपते हुए कहेगा " की लीजिये अपने गुनाहगारों को"
व्यर्थ में वक़्त की बर्बादी.
शायद उन आतंकियों को पकड़ने का वो आधार एक ज़ोरदार ठहाके के साथ पाकिस्तानी कचड़े की शोभा बढ़ा रहा होगा.
क्या हमारे एजेंसी का ये नाकारापन देश में और आतंकियों को कुले सांड की तरह घुमने का शह नहीं देगा?
आंतंकवाद पर कारवायी करने के नाम पर मौन धारण करने वाली ये सरकार ने अभी ऐसा तमाचा देश को मारा है जिसकी गूँज अभी थमने वाली नहीं.

Thursday 19 May 2011

"वक़्त बदला,हालात बदले और बदला वो बिहार"


कॉलेज में छुट्टी मिली तो इस बार पटना जाने का मौका मिला,आनन-फानन में टिकट लेकर चल पड़ा जाने की ख़ुशी थी ही  साथ साथ मन में एक सवाल  भी उठ रहा था के इस बार क्या बदलाव देखने को मिलेगा?
प्रश्न स्वाभाविक था क्योंकि कुंठित हो चूका बिहार अब विकास की राह पर अग्रसर था.
पटना जं. के बाहर निकला तो नज़ारा ऐसा था मानो मै किसी तीर्थ स्थान पर पहुँच  गया हूँ.मैंने कुछ ज्यादा कह दिया तो माफ़ी चाहूँगा ,मगर महज़ ३०० मीटर के  दायरे में एक भव्य विशाल महाबली हनुमान की मंदिर,एक ऊँची मीनार वाली मस्जिद और अब एक अति सुन्दर बोद्ध मंदिर भी नज़र आये तो कोई भी अचम्भा खा जाए.
ये स्वागत द्वार या यूँ कहे सूचक है  बिहार की एकता और सदभावना का.
किसी ज़माने में जंगल राज कहे जा रहे राज्य की राजधानी की रौनक ही  कुछ और थी.हर तरफ साफ़ सफ़ाई और रौशनी की चकाचौंध आँखों को आकर्षित कर रही थी.
कही कही पर "क्लीन पटना ग्रीन पटना" जैसे स्लोगन भी पढने को मिल रहे थे,हालांकि ये पहले भी लिखे होते थे मगर फर्क सिर्फ इतना था की इस पर पान और गुटके का टीका लगा होता था ताकि नज़र न लगे.

शायद बात हो रही है उस बदलते बिहार की जिसके लिए कुछ साल पहले वक़्त जैसे ठहर सा गया था और वहां  की जनता ने बदलाव की आशा करनी भी छोड़ दी थी ..!
मगर बदलाव लाता  भी तो कौन??
बीबीसी के एक कार्यक्रम में तत्कालीन मुख्यमंत्री राबड़ी देवी से पूछा जाता है कि आप मुख्यमंत्री बन गयी हैं..कैसे संभालेंगी राज्य को???
इस पर उनका जवाब बड़ा शर्मनाक आता है
 "जिस तरह से बचपन में रोटी बनाना और बकरी चराना सीखे थे वैसिये सीख जाएंगे ई भी "
अब ज़रा सोचिये जब राज्य का मुखिया ही ऐसी कुपोषित मानसिकता का आदमी हो जिसे एक राज्य चलाना  और बकरी चराने का अन्तर प्राप्त न हो उससे किसी अच्छे कार्य कि आशा भी करना मुर्खता थी.
कारणवश!
हर तरफ कुशाशन ,बदतमीज़ी ,रंगदारी!
आपकी कार कितनी भी अच्छी क्यों न हो गांधी सेतु पर लाठी दिखाकर हे रोका जाता था,आपके पास ट्रेन में ए .सी का टिकेट क्यों ना हो मगर एक बेटिकट ग्वाला आपके साथ सफ़र का आनंद लेगा,क्यों कि दुसरे दर्जे में गर्मी से उसका दूध जो फट जाता.
बिहार भ्रस्टाचार के ऐसे भवर में फंसता जा रहा था जिससे निकलना अब  नामुमकिन सा लग रहा था.

लेकिन कहते है न कभी न कभी पाप का घड़ा ज़रूर भरता है,शायद वो समय  आ गया था तभी लालू राज का अंत समीप लगने लगा.
और आशाहीन हो चुके बिहार को नितीश कुमार जैसा प्रभावी नेता मिला ,जिन्होंने धर्म और जाती कि राजनीति छोड़ विकास का मुद्दा उठाया .
"वक़्त बदला ,हालात बदले,और बदला सारा बिहार"
हर तरफ विकास कि बातें होने लगी,गाव,शहर में जर्जर हो चुके  सड़कों  का पूर्ण रूप से निर्माण हुआ,जानकार सही कहते हैं के किसी राज्य का पहला आकर्षण उस राज्य का यातायात होता है.
वो बदलाव यहाँ अब देखने को मिल रहा है. .
जो सफ़र टूटी सड़क के कारण ३ घंटे का होता था वो अब महज़ ४५ मिनट में पूरा  किया जा सकता है.
आपके पास अगर गाडी अच्छी हो तो अब १२०-१३० किमी प्रति घंटा की रफ़्तार पाना अब मुक्मिन है,यकीन ना आये तो कभी एन ,एच  ३१ पर आकर देखे.
गावों के बच्चों को मुफ्त कपडे.किताब ,भोजन और यहाँ तक की साईकिल भी दी गयी.जिसका असर अब साफ़ देख जा सकता है,बच्चे अब खुद स्कुल जाना चाहते  हैं.और इससे शिक्षा का स्तर भी बढ़ रहा है 
गावं में बिजली पहुंचाने  के लक्ष्य से एक कदम आगे जाकर इन्टरनेट की सुविधा  मुहैया करायी जा रही है.
बिहार की तरफ उलट कर न देखने वाले व्यापारी अब वहां कारखाना लगा रहे हैं,जिससे वहा रोज़गार को  बढ़ावा मिल रहा है.
कूल मिलाकर कहा जाए तो बेशक यही वो बदलाव है,जिसे देखने के लिए ना जाने कब से यहाँ की आँखे तरस रही थी.
इस सारे कार्य का श्रेय नितीश जी को ही  जाता है जिन्होंने ये बदलाव लाकर एक मिसाल क़ायम की.
काश दुसरे राज्य के नेता  भी धर्म की राजनीती छोड़ विकास की राजनीती का पाठ नितीश से पढ़े तो अपने देश की तस्वीर ही  कुछ अलग होगी.
बस इस वक़्त तो  ज़ेहन में एक बड़े आदमी की कही  बात याद आ रही है जो बिहार आज कह रहा है 
  "जिस तरह रात को चीरता हुआ आता है आफताब,देखने वाले देख कैसे होता है इन्क़लाब"...............!!!!!